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निकहते-गुल बहुत इतराती हुई फिरती है / शाद अज़ीमाबादी
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निकहते-गुल[1] बहुत इतराई हुई फिरती है।
वोह कहीं खोल भी दें तुर्रये-गेसू[2] अपना।
निकहते-ख़ुल्देबरीं[3] फैल गईं कोसों तक।
वोह नहा कर जो सुखाने लगे गेसू अपना॥
लिल्लाह हम्द! कदूरत[4] नहीं रहने पाती।
मुँह धुला देता है हर सुबह को आँसू अपना॥
गम में परवाना-ये-मरहूम के[5]थमते नहीं अश्क।
शमअ़! ऐ शमअ़! ज़रा देख तो मुँह तू अपना॥