नीकी घनी गुननारि निहारि नेवारि तऊ अँखियाँ ललचाती। जान अजानन जोरित दीठि बसीठि के ठौरन औरन हाती॥ आतुरता पिय के जिय की लखि प्यार 'प्रबीन' वहै रसमाती। ज्यों ज्यों कछू न बसति गोपाल की त्यों-त्यों फिरै घर में मुसकाती।
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कृतिदेव | चाणक्य
शुषा | डेवलिस