मेरी बिचारी / भगवती चरण शर्मा 'निर्मोही'
बालापन[1] से ही मिन[2] गैल्या[3], सदा दुख का दीन बितैने,
खोटी-खारी[4] लोखू[5] की सुणिने, इथैं-उथैं[6] की ठोकर खैने।
हूँद[7] कंपिकी कटीने रात, रूड़ो[8] डाल्यूँ[9] का छैल[10] बितैने,
वर्षा ऋतु मा दिवरों उनाये, कई एक चिन्ता तब ऐने।
2.
कभी कबड्डी गिलिडंडा ही, खेलि-खेलिकी दीन गँवैने,
पढ़ि-लिखि छौं फिर कविता कैने, ओर-पोर[11] का ध्यान मिटैने।
इना मयाल्दू[12] त्वै ये की भी, द्वी छूवी[13] त्वैमा कभि नि लगैने,
अपणा दुख का दुखड़ा सुणैकी, रोज त्यारा भी आँसू बगैने।
3.
कभी खूब सी आँगड़ी[14] चदरी, धोती मैं त्वै कुनी ल्हायो,
मेरा मोर[15] तिन अरो बिचारी, कभी पेट भरि खाणु नि खायो।
हँसुली-धगुली[16] दूर रई पर, एक सूत भी मिन[17] नि गढ़ायो[18],
त्यरा[19] नाक को मुरखलु[20] तक भी, पापी पेट की भेंट चढ़ायो।
4.
लाईं-पैरीं[21] देखि बिराणी[22], कभी त्वै कु तैं डाह नि आयो,
अलाणि[23] चीज ल्हाँ, फलाणि[24] ल्हाँ, बोलकि मेरो ज्यू[25] नि जलायो।
जाणदू छौं मैं कभी एक दिन भी, त्वै सन सुख नि दे पायो,
किन्तु त्वै सनै रत्ती भर भी, पछतावा याँ को नि आयो।
5.
ऐ[26] छौ त्वै सन सुखी करण को, मैं मु[27] जब कुछ समय बिचारी,
हाय विधाता! निष्ठुर त्वै सन, छिनण लग्यूँ छ मैं से प्यारी।
चोट लगैकी भारी मन पर, जाणी छै तू अरी अगाड़ी[28],
जै[29] ले, कखी जग्वाली[30] मैं सन, औलो मैं भी त्यरा पिछाड़ो[31]।