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लमहा / नीना कुमार
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झड़ता रहा शजरे-हयात[1] से हर इक पल लमहा
गिरता रहा वादी-ए-पुरखार[2] में मुसलसल[3] लमहा
ज़र्द[4] होती गई है ये वादी-ए-माज़ी[5] फिर भी
मुन्तज़िर[6] है नए रंग लिए, मिले कल लमहा
लमहे की मंजिल क्या है, है शबनम की तरह
कभी पुरनम[7], कभी बन जाए है ग़ज़ल लमहा
देखो सब्ज़[8] नहीं होते, यहाँ दोबारा से नज़ारे
सिलसिला-ए-ज़ीस्त[9] हर पल है नया छल लमहा
जब चाहा के मुस्तक़िल[10] इक लमहे में रहें हम
'नीना' क्यूँ पाया, उसी वक़्त, गया बदल लमहा