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लो, ख़ुश रहो उठाकर तुम, / ओसिप मंदेलश्ताम
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लो, ख़ुश रहो उठाकर तुम, इस हथेली से मेरी
सूरज के एक टुकड़े-सी, मीठे मधु की ये ढेरी
हम से कही यह बात पेर्सेफ़ोना[1] की मधुमक्खी ने
कोई खोल नहीं सकता पहले से खुली नाव को
कोई देख नहीं सकता समूर में लिपटी छाँव को
भय-घिरे जीवन को कोई और डरा नहीं सकता
हमारे लिए तो अब चुम्बन ही बचे हैं शेष
छोटी-छोटी झबरी-सी मधुमक्खियों के अवशेष
अपने उस छत्ते से उड़कर मर रही हैं जो
रात के झीने झुरमुट में सरसरा रही हैं वे
ताइगा[2] के घने वन में घर बना रही हैं वे
समय, पराग और गंध ही भोजन है उनका
लो, ज़रा मुझ से भैया, उपहार यह जंगली ले लो
सूखी-मृत मक्खियों की, अदृश्य ये मंगली[3] ले लो
मधु बदल गया मेरा अब सूरज के टुकड़े में
(रचनाकाल : नवम्बर 1920)
शब्दार्थ