बून्द पानी की हूँ थोड़ी-सी हवा है मुझमें
इस बिज़ाअ’त[1] पे भी क्या तुर्फ़ां[2] अना[3] है मुझमें
ये जो इक हश्र[4] शब-ओ-रोज़[5] बपा[6] है मुझमें
हो न हो और भी कुछ मेरे सिवा है मुझमें
सफ़्हा-ए-दहर[7] पे इक राज़ की तहरीर[8] हूँ मैं
हर कोई पढ़ नहीं सकता जे लिखा है मुझमें
कभी शबनम की लताफ़त[9] कभा शो'ले की लपक
लम्हा-लम्हा ये बदलता हुआ क्या है मुझमें
शहर का शहर हो जब अरसा-ए-मशहर[10] की तरह
कौन सुनता है जो कुहराम मचा है मुझमें
तोड़कर साज़ को शर्मिन्दा-ए-मिज़राब[11] न कर
अब न झंकार है कोई न सदा है मुझमें
वक़्त ने कर दिया 'साबिर' मुझे सहरा-ब-किनार[12]
इक ज़माने में समुन्दर भी बहा है मुझ में