भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं हूँ बिखरा हुआ दीवार कहीं दर हूँ मैं / मेहर गेरा
Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:31, 29 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मेहर गेरा |अनुवादक= |संग्रह=लम्हो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मैं हूँ बिखरा हुआ दीवार कहीं दर हूँ मैं
तू जो आ जाये मेरे दिल में तो इक घर हूँ मैं
कल मेरे साथ जो चलते हुए घबराता था
आज कहता है तिरे क़द के बराबर हूँ मैं
इससे मैं बिछडूं तो पल-भर में फ़ना हो जाऊं
मैं तो ख़ुशबू हूँ इसी फूल के अंदर हूँ मैं
रुत बदलने का तआसर नहीं करता मैं क़ुबूल
कोई मौसम हो मगर एक ही मंज़र हूँ मैं
तू जो उठती है तो फिर मुझमें समाने के लिए
मौजे-आवारा अगर तू है समंदर हूँ मैं
कहकशां, चांद, सितारे हैं सभी मेरे लिए
मेहर कोनैन में हर चीज़ का महवर हूँ मैं।